गुरुवार, 28 अगस्त 2008

याद आता है बचपन

मुझे बचपन खूब याद आता है। मैं बहुत छोटा था। हर रोज शाम को एक घर से धुंआ उठता देख पड़ोस वाले भी दोड़ पड़ते थे, हाथ में एक करसी *उपले का टूटा हिस्‍सा* लेकर। आग मांगने के लिए। यही परम्‍परा थी, रिवाज था चूल्‍हा जलाने का और पेट की आग बुझाने का। कहने का मतलब पेट की आग बुझाने के लिए आग बंटती थी। इस आग बंटने के बाद सब समझ जाते थे कि कहां कहां आग जल रही है और कहां नहीं। जहां नहीं जल पाती थी तो वहां की व्‍यवस्‍था गांव के लोग या कहें पड़ोस वाले संभाल लेते थे। लेकिन आजकल ---

पड़ोस में बहू जल जाती है या जला दी जाती है, पता ही नहीं चलता। पुलिस को भी नहीं।

4 टिप्‍पणियां:

  1. चन्द शब्दों में पूरी बात कह दी.

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  2. पहुंचती तो पुलिस भी है
    परंतु फीस वसूलने
    कुछ तो कर रही है
    जेल में न सही
    जेब में तो धर रही है

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  3. वाह अविनाश जी । बहुत बढ़िया और सटीक कविता ।

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  4. लेकिन आजकल ---

    पड़ोस में बहू जल जाती है या जला दी जाती है, पता ही नहीं चलता। पुलिस को भी नहीं।
    " very painful, well decribed in few words, commendable"

    Regards

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टिप्‍पणी की खट खट
सच्‍चाई की है आहट
डर कर मत दूर हट